मंहगाई की मार: कैसे मध्यम वर्ग अपनी ज़िंदगी को बचाए रखने की जद्दोजहद कर रहा है

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कभी भारत की प्रगति का स्तंभ कहे जाने वाला मध्यम वर्ग आज अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। ये लड़ाई अखबार की सुर्खियों में शायद न दिखे, लेकिन हर घर में महसूस की जा सकती है—कभी बच्चों की ट्यूशन फीस भरने और किराना खरीदने के बीच चुनाव करना पड़ता है, तो कभी पेट्रोल की टंकी आधी भरवाकर लौटना पड़ता है।

मंहगाई अब एक आंकड़ा नहीं रही, बल्कि यह हमारी दिनचर्या का हिस्सा बन गई है।

जब खर्च बढ़ते हैं और आमदनी वहीं की वहीं रहती है

आजकल परिवारों में बातचीत इस बात पर नहीं होती कि कौन-सी नई चीज़ खरीदी जाए, बल्कि ये चर्चा होती है कि इस महीने कौन-सा खर्च टाला जाए। सैलरी जैसी की तैसी है, लेकिन दूध, दाल, सब्ज़ियां, बिजली का बिल, स्कूल की फीस—सब धीरे-धीरे बढ़ रहे हैं।

याद करिए, आख़िरी बार आपने बिना अकाउंट बैलेंस देखे कोई फैसला कब लिया था? आज के समय में अधिकांश मध्यमवर्गीय परिवार ऐसा सोच भी नहीं सकते।

कर्ज़ के सहारे खड़ी ज़िंदगी

सच कहा जाए तो बहुत सारे लोग अब क्रेडिट कार्ड, EMI और BNPL (बाय नाउ, पे लेटर) स्कीम्स के सहारे जीवन जी रहे हैं। ये विकल्प अब लग्ज़री नहीं बल्कि ज़रूरत बन चुके हैं।

लेकिन इसी के साथ एक चिंता भी बढ़ रही है: भारत का घरेलू कर्ज़ अपने उच्चतम स्तर पर है, जबकि बचतें पिछले 50 सालों में सबसे कम।

लोग अपनी फिक्स्ड डिपॉज़िट तोड़ रहे हैं, बीमा की प्रीमियम टाल रहे हैं और कभी-कभी तो ज़रूरी इलाज तक के लिए पर्सनल लोन ले रहे हैं। ये सब सिर्फ़ इसलिए कि वो उस जीवन स्तर को बनाए रख सकें जिसे उन्होंने वर्षों की मेहनत से बनाया था।

‘पाउच इकॉनॉमी’ की ओर बढ़ता समाज

महंगाई से जूझने के लिए लोग कम मात्रा में खरीदने लगे हैं। अब शैम्पू की बोतल नहीं, सैशे खरीदे जाते हैं। सब्ज़ियां किलो की जगह पाव में ली जाती हैं। यह सिर्फ़ एक आर्थिक रणनीति नहीं, बल्कि एक मानसिक बदलाव है।

FMCG कंपनियां भी इस ट्रेंड को समझ चुकी हैं। वे अब छोटे पैक में प्रोडक्ट्स उतार रही हैं ताकि ग्राहक जुड़े रहें। कार कंपनियां भी बता रही हैं कि एंट्री लेवल गाड़ियों की बिक्री घट रही है—यह एक बड़ा संकेत है कि मध्यम वर्ग की आकांक्षाएं सीमित हो रही हैं।

भावनात्मक थकान भी असली है

महंगाई केवल आर्थिक बोझ नहीं लाती, यह मानसिक थकावट भी बढ़ाती है। माता-पिता बच्चों की पढ़ाई के भविष्य को लेकर चिंतित हैं। युवा कपल्स घर खरीदने के फैसले टाल रहे हैं। रिटायर्ड लोग अपने रिटायरमेंट फंड को उम्मीद से ज़्यादा जल्दी खर्च कर रहे हैं।

काउंसलिंग सेंटर्स और हेल्पलाइन सेवाओं पर ऐसे लोगों की संख्या बढ़ रही है जो न सिर्फ़ पैसे की सलाह चाहते हैं, बल्कि उस तनाव का हल भी, जो इस पैसे की कमी से उत्पन्न हो रहा है।

क्या सिस्टम सुन रहा है?

सरकार ने कुछ कदम ज़रूर उठाए हैं—बजट में टैक्स छूट दी गई है, RBI ने ब्याज दरें घटाई हैं ताकि लोन लेना आसान हो। लेकिन कई लोगों को ये मदद नाकाफी लगती है।

ईंधन पर टैक्स, स्कूल और हेल्थकेयर खर्च, और मोबाइल सेवाओं जैसी चीजें अब भी उतनी ही महंगी हैं। जनता महसूस कर रही है कि जहां एक तरफ़ गरीबों के लिए योजनाएं हैं और अमीर निवेशकों को अवसर मिलते हैं, वहीं मध्यम वर्ग खुद के लिए लड़ता रह जाता है।

हम क्या कर सकते हैं?

अगर आप भी इस दौर से गुज़र रहे हैं, तो आपको जानना चाहिए कि आप अकेले नहीं हैं। कुछ चीजें ऐसी हैं जो हम सभी कर सकते हैं:

  • अपने खर्चों को ट्रैक करें—छोटे खर्चे ही मिलकर बड़ी बचत बना सकते हैं।
  • उच्च ब्याज वाले कर्ज़ से बचें—क्रेडिट कार्ड तात्कालिक राहत दे सकता है लेकिन दीर्घकालिक परेशानी भी।
  • एक आपातकालीन फंड बनाएं—छोटा ही सही, लेकिन मन की शांति देगा।
  • पैसों के बारे में परिवार से बात करें—ये जिम्मेदारी अकेले न उठाएं।
  • मदद लेने में झिझक न करें—चाहे वो फाइनेंशियल एडवाइज़र हो या एक भरोसेमंद दोस्त।

मध्यम वर्ग की मजबूती ही देश की ताक़त है

मध्यम वर्ग ने इस देश को आकार दिया है। उसकी मेहनत, उसकी बचत, और उसका भरोसा ही देश की असली पूंजी है। अब समय है कि नीति-निर्माता, कॉर्पोरेट और समाज मिलकर इस वर्ग को फिर से सशक्त करें।

क्योंकि जब तक यह वर्ग टिकेगा, देश आगे बढ़ता रहेगा।